इन्द्र की माता का नाम अदिति था और पिता का नाम कश्यप। इसी तरह इन्द्र के सौतेले भाइयों की माता का नाम दिति और पिता कश्यप थे। ऋषि कश्यप की कई पत्नियां थीं जिसमें से 13 प्रमुख थीं। उन्हीं में से प्रथम अदिति के पुत्र आदित्य कहलाए और द्वितीय दिति के पुत्र दैत्य। आदित्यों को देवता और दैत्यों को असुर भी कहा जाता था। इसके अलावा दनु के 61 पुत्र दानव, अरिष्टा के गंधर्व, सुरसा के राक्षस, कद्रू के नाग आदि कहलाए।
इन्द्र की पत्नी और पुत्र : इन्द्र का विवाह असुरराज पुलोमा की पुत्री शचि के साथ हुआ था। इन्द्र की पत्नी बनने के बाद उन्हें इन्द्राणी कहा जाने लगा। इन्द्राणी के पुत्रों के नाम भी वेदों में मिलते हैं। उनमें से ही दो वसुक्त तथा वृषा ऋषि हुए जिन्होंने वैदिक मंत्रों की रचना की।
इन्द्र की वेशभूषा और शक्ति : सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है और वे अपार शक्तिशाली देव हैं। इन्द्र मेघ और बिजली के माध्यम से अपने शत्रुओं पर प्रहार करने की क्षमता रखते थे।
इन्द्र का जन्म : ऋग्वेद के चौथे मंडल के 18वें सूक्त से इन्द्र के जन्म और जीवन का पता चलता है। उनकी माता का नाम अदिति था। कहते हैं कि इन्द्र अपनी मां के गर्भ में बहुत समय तक रहे थे जिससे अदिति को पर्याप्त कष्ट उठाना पड़ा था।
वेदों में इन्द्र : वेदों में इन्द्र की स्तुति में गाए गए मंत्रों की संख्या सबसे अधिक है। इन्द्र के बाद अग्नि, सोम, सूर्य, चंद्र, अश्विन, वायु, वरुण, उषा, पूषा आदि के नाम आते हैं। अधिकांश मंत्रों में इन्द्र एक पराक्रमी योद्धा की भांति प्रकट होते हैं
इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्रवोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री।
अहन् अहि मन्वपस्ततर्द प्रवक्षणा अभिनत् पर्व्वतानाम्।। (ऋ.मं. 1/32/1)
अर्थात् : इन्द्र के उन पुरुषार्थपूर्ण कार्यों का वर्णन करूंगा जिनको उन्होंने पहले-पहल किया। उन्होंने अहि यानी मेघ को मारा; (अपः) जल को नीचे लाए और पर्वतों को जलमार्ग बनाने के निमित्त काटा (अभिनत्)।
इसके बाद ही इसी सूक्त की आठवीं ऋचा इस प्रकार है-
नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अतियन्ति आपः।
याः चित् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् त्रासामहिः यत्सुतः शीर्बभूव॥ (ऋग्वेद 1/32/8)
अर्थात् : ठीक जिस प्रकार नदी ढहे हुए कगारों पर उमड़कर बहती है, उसी प्रकार प्रसन्न जल पड़े हुए वृत्र (बादल) पर बह रहा है। जिस वृत्रा ने अपनी शक्ति से जल को जीते-जी रोक रखा था, वही (आज) उनके पैरों तले पड़ा हुआ है।
अब तक हुए 14 इन्द्र : स्वर्ग पर राज करने वाले 14 इन्द्र माने गए हैं। इन्द्र एक काल का नाम भी है, जैसे 14 मन्वंतर में 14 इन्द्र होते हैं। 14 इन्द्र के नाम पर ही मन्वंतरों के अंतर्गत होने वाले इन्द्र के नाम भी रखे गए हैं। प्रत्येक मन्वंतर में एक इन्द्र हुए हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं- यज्न, विपस्चित, शीबि, विधु, मनोजव, पुरंदर, बाली, अद्भुत, शांति, विश, रितुधाम, देवास्पति और सुचि। उपरोक्त में से शचिपति इन्द्र पुरंदर के पूर्व पांच इन्द्र हो चुके हैं।
भगवान कृष्ण के पहले ‘इंद्रोत्सव’ नामक उत्तर भारत में एक बहुत बड़ा त्योहार होता था। भगवान कृष्ण ने इंद्र की पूजा बंद करवाकर गोपोत्सव, रंगपंचमी और होली का आयोजन करना शुरू किया। श्रीकृष्ण का मानना था कि ऐसे किसी व्यक्ति की पूजा नहीं करना चाहिए जो न ईश्वर हो और न ईश्वरतुल्य हो। गाय की पूजा इस लिए क्योंकि इसी के माध्यम से हमारा जीवन चलता है। होली उत्सव इसलिए क्योंकि यह सत्य की असत्य पर जीत का प्रतीक है। रंगपंचमी जीवन को उत्सव और खुशियों से भरने का त्योहार है। श्रीकृष्ण ने का मानना था कि हमारे आस-पास जो भी चीजे हैं उनसे हम बहुत ही प्रेम करते हैं जैसे गायें, पेड़, गोवर्धन पर्वत (तब गोवर्धन पर्वत साल भर हरा घास, फल मूल एवं शीतलजल को प्रवाहित करता था)। श्रीकृष्ण के शब्दों में ‘ये सब हमारी जिंदगी हैं। यही लोग, यही पेड़, यही जानवर, यही पर्वत तो हैं जो हमेशा हमारे साथ हैं और हमारा पालन पोषण करते हैं। इन्हीं की वजह से हमारी जिंदगी है। ऐसे में हम किसी ऐसे देवता की पूजा क्यों करें, जो हमें भय दिखाता है। मुझे किसी देवता का डर नहीं है। अगर हमें चढ़ावे और पूजा का आयोजन करना ही है तो अब हम गोपोत्सव मनाएंगे, इंद्रोत्सव नहीं।’